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ALONE : अकेले रहना हैं तो 4 बाते जान लो ! Mastering the Solo Journey 𓅫

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भीड़ भाड़ से अलग होकर जब भी कोई इंसान अपने साथ अकेले में समय बिताता है तभी उसके दिमाग में नाना प्रकार की चिंताएं जन्म लेने लगती हैं। मनुष्य की प्रवृति ही ऐसी है कि वह ज्यादातर समय नकारात्मक ही सोचता है। अपने लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए, यह सोचने की जगह वह यह सोचता है कि अगर लक्ष्य पूरा नहीं हुआ तो मैं क्या करूंगा और इस प्रकार की नकारात्मक विचारधारा के कारण जीवन पर्यन्त डर डरकर जीता रहता है। अगर पूरी बुद्धिमानी और सजगता के साथ इस डर को समझा जाए तो यही डर इंसान के पतन का कारण बनता है। ऐसा मनुष्य जो खुद पर संशय करता है, खुद पर संदेह करता है, भला कैसे सफल हो सकता है? लेकिन बुद्धिमानी से अगर इस डर का उपयोग किया जाए तो यही डर उसकी सबसे बड़ी ताकत बन सकता है। काश, केवल एक बार उसने खुद पर विश्वास किया होता तो उसे मालूम होता कि उसके डर में ही उसकी ताकत का रहस्य छुपा हुआ है। यह कहकर संन्यासी चुप हो गया और चुपचाप अपने कदमों पर ध्यान लगाते हुए जंगली घास पर आगे बढ़ने लगा। संध्या का समय था। संन्यासी और एक लकड़हारा जंगल में से होकर गांव की तरफ निकल रहे थे। संन्यासी के यह शब्द लकड़हारे को कुछ समझ में नहीं आई। वह सोच रहा था कि डर में ताकत कैसे हो सकती है। डर तो आदमी को कमजोर बनाता है। अपने मन की उत्सुकता को जब वह काबू नहीं कर सका तो उसने संन्यासी से पूछा कि महात्मन्, आप ये क्या कह रहे हैं कि डर में ताकत होती है?डर तो आदमी को कमजोर बनाता है। उसे तो अपना डर दूर करना चाहिए। लकड़हारा अपनी बात पूरी कर पाता, उससे पहले ही उसे एक शेर की दहाड़ सुनाई दी। शेर की गर्जना सुनकर लकड़हारे का रोम रोम कांप गया। उसके कान खड़े हो गए। जंगल से आती एक एक आहट उसे साफ सुनाई दे रही थी। उसके कदम वहीं पर जम गए थे। वह कह भी नहीं पा रहा था। उसे पता था कि थोड़ी सी हरकत उसकी जान जोखिम में डाल सकती है। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था, लेकिन फिर भी वह अपनी सांसों पर काबू पाने का प्रयास कर रहा था। कुछ देर बाद जब खतरा टल गया, तब संन्यासी ने कहना शुरू किया। संन्यासी ने कहा कि अभी जब तुम डरे हुए थे तो तुम्हारे शरीर का रोम रोम जाग गया था। जंगल से आ रही छोटी से छोटी आहट पर भी तुम्हारा ध्यान लगा हुआ था। तो इस प्रकार अपने मन के डर के कारण तुम होश में आ पाए। तुम पूरा ध्यान लगा पाए। इससे पहले जब तक तुम्हें शेर की दहाड़ सुनाई नहीं दी थी, तब तक तुम अपने विचारों में खोए हुए थे। लेकिन जैसे ही तुम्हें शेर की दहाड़ सुनाई दी, वैसे ही तुम्हारे सारे विचार गायब होकर हम वर्तमान में उपस्थित हो गए। यदि तुम्हें अभी शेर से बचकर भागना होता या फिर उससे लड़ना होता तो तुम्हें अपने शरीर की वह क्षमता देखने को मिलती, जो आज तक जीवन में तुमने खुद भी महसूस नहीं की होगी। जब कोई कुत्ता तुम्हारे पीछे दौड़ता है, उस समय तुम्हारी जो रफ्तार होती है, वह तुम्हारी आम जिंदगी से कहीं ज्यादा होती है। साधारण जीवन में तुम इतने तेज नहीं दौड़ पाओगे, जितना कि एक कुत्ते के सामने दौड़ पाओगे। यह ताकत या कहें कि हमारे शरीर की क्षमता अभी देखने को मिलती है। जब हमारा मन डर में होता है, किसी डरावनी परिस्थिति में हमारा मस्तिष्क और हमारा शरीर अपनी उच्चतम श्रेणी में काम करता है जो काम तुम आम जिंदगी में नहीं कर पाते, वह तुम्हें डराकर कराया जा सकता है। जहां पर भी तुम डर का एहसास होता है, वहीं पर तुम्हारी इंद्रियां पूर्ण रूप से सक्रिय हो जाती हैं। तुम्हारे कानों की सुनने की क्षमता तेज हो जाती है। दृष्टि एक टक हो जाती है, पूरी सजग हो जाती है। सक्रियता बढ़ जाती है और जैसे जैसे वह डर खत्म होता है, वैसे वैसे तुम सुप्तावस्था में चले जाते हो। तुम सो जाते हो और तुम्हारी इंद्रियां फिर से आराम की स्थिति में चली जाती हैं। संन्यासी ने लकड़हारे से कहना जारी रखा कि परीक्षा से एक दिन पहले जो याद करने की तुम्हारी गति होती है, वह साधारण याद करने की क्षमता से कहीं ज्यादा होती है। सिर्फ एक बार याद किया हुआ तुम्हें परीक्षा के समय याद रह जाता है और तुम जानते हो कि यह सब परीक्षा के डर से ही होता है। इसलिए डर को दूर करने की जगह इंसान को यह सोचना चाहिए कि वह अपने डर को ताकत में कैसे बना सकता है। जिस प्रकार सुख और दुख, प्रकाश और अंधेरा एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार डर और ताकत भी एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। जिस प्रकार रोशनी के बिना अंधेरा पूर्ण नहीं होता। सुख के बिना दुख पूर्ण नहीं होता, उसी प्रकार डर के बिना ताकत का भी कोई महत्व नहीं है। लकड़हारा संन्यासी के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। उनके चरणों में नतमस्तक हो गया और उनसे पूछा कि महात्मन! अंधेरे को तो दीया जलाकर रौशनी से भरा जा सकता है, लेकिन अपने डर को ताकत में कैसे बदलें, इसके लिए कोई उपाय बताएं। इस पर संन्यासी ने कहा कि डर दो प्रकार के होते हैं। सबसे पहला मानसिक डर और दूसरा शारीरिक डर। संन्यासी ने लकड़हारे को समझाते हुए कहना शुरू किया कि मान लो तुम्हें जंगल से होकर गुजरना है और अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे मन में शेर का खयाल आ गया। अभी तक प्रत्यक्ष रूप से शेर तुम्हारे सामने नहीं आया और न ही। की दहाड़ सुनाई दी। मतलब दूर दूर तक कोई अंदेशा नहीं है कि जंगल में शेर मौजूद है। लेकिन शेर का खयाल आने से तुम्हारे मन में एक डर पनप गया। अब तुम्हारा उठने वाला एक एक कदम उसी डर से अभिभूत होगा। हर समय तुम्हारे मन में यही खयाल चलेगा कि कहीं शेर न आ जाए। यह शेर वर्तमान में तुम्हारे सामने नहीं है। यह तुम्हारी बहुविषयक की कल्पना है। इसी प्रकार जो मनुष्य अतीत और भविष्य की चिंताओं में डूबा रहता है, वह मानसिक डर का शिकार होता चला जाता है। इसी विडंबना के कारण वह अपने जीवन में जितने भी निर्णय लेता है, वह सारे मानसिक डर से ग्रसित होते हैं। इसलिए ज्यादातर मनुष्य पूर्ण रूप से अपने निर्णय पर भरोसा नहीं कर पाते हैं और यही निर्णय या फिर फैसले जो आधे मन से लिए जाते हैं, मनुष्यों के कार्यों को पूरा नहीं होने देते। लेकिन यह भी सत्य है कि मानसिक डर के कारण ही इंसान अपनी तैयारी पूरी करता है। अगर तुम्हारे मन में शेर का खयाल नहीं आएगा तो तुम शेर से सुरक्षा के लिए कोई भी कदम नहीं उठा होगे। लेकिन अगर तुम्हें शेर का खयाल आ गया तो तुम उसकी सुरक्षा के लिए कोई न कोई तरीका जरूर अपनाओगे। तो इसलिए मानसिक डर बेकार नहीं होता। वह आपकी सुरक्षा को और ज्यादा मजबूत भी करता है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते लेकिन उसके बावजूद आप मानसिक दर्द झेल रहे होते हैं। उदाहरण के लिए कुछ मनुष्य हमेशा यह सोचते रहते हैं कि उन्हें कोई बीमारी न हो जाए। कहीं उनके साथ कोई दुर्घटना न घट जाए। कहीं उनके साथ कोई धोखा न कर दे। लेकिन इन सब घटनाओं पर उनका कोई जोर नहीं होता। यह उनके हाथ में नहीं होता है। अगर दुर्घटना होनी होगी तो होगी। अगर बीमारी होनी होगी तो होगी ही। अच्छा खानपान और अच्छी दिनचर्या का पालन करने के बाद भी अगर कोई मनुष्य बीमार हो जाता है तो यह उसके नियंत्रण के परे की बात है। अपनी तरफ से उसने पूरी कोशिश की और यही उसका कर्तव्य था। उसमें कोई कुछ क्या कर सकता है?जो घटनाएं इंसान की पहुंच के परे होती हैं, वह उनसे भी परेशान होता रहता है। उनसे भी उसका मन घबराता रहता है और यही मानसिक डर उसके पतन का कारण बनता है। और यही मानसिक डर अगर सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो मनुष्य समझदार और अनुभवी कहलाएगा। जो इंसान यह सोचता है कि कांटे सिर्फ दर्द देने के लिए ही बने हैं। वे भूल जाते हैं कि कांटे ही फूलों की रक्षा करते हैं। इसी प्रकार एक ज्ञानी मनुष्य किसी भी चीज का उपयोग अपने सकारात्मक तरीके से कर सकता है। लेकिन एक अज्ञानी मनुष्य अपनी अज्ञानता वश उन चीजों को भी छोड़ देता है जो उसके लिए उपयोगी होती हैं। विवेकशील मनुष्य फेंके गए पत्थरों का भी महल खड़ा कर लेता है, लेकिन एक वैज्ञानिक मनुष्य उन पत्थरों को दूसरों पर फेंकता रहता है। अगर किसी मनुष्य को अपने मानसिक डर को ताकत में बदलना है तो उसके कुछ नियम हैं, कुछ उपाय हैं। सबसे पहला उपाय अपने विचारों का निरीक्षण। अगर हम अपने जीवन में अपने विचारों का निरीक्षण करेंगे तो हम पाएंगे कि ज्यादातर विचार हमारे काल्पनिक होते हैं और इसलिए जो डर उन विचारों के कारण पनपता है, वह भी काल्पनिक होता है। ज्यादा सोचने वाले लोगों को जब सोचने के लिए कुछ नहीं मिलता तो वह निरर्थक बातों के बारे में सोचने लगते हैं और वह बेकार के विचार उसे तो परेशान करते ही हैं, साथ ही साथ उसके परिजनों को और उसके सगे संबंधियों को भी परेशान करते हैं। इसलिए ज्यादा सोचने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि मन में उठ रहे तमाम विचारों में से काम के विचार कौन से हैं और बेकार के विचार कौन से हैं? जो निरर्थक विचार हों, उन्हें दूर करते जाओ और जो सार्थक विचार हों, उनको गहराई से सोचना शुरू करो। तभी तुम्हारी समस्याओं की, तुम्हारी उलझनों के उपाय निकलेंगे। मानसिक डर को दूर करने का दूसरा उपाय है उसका सामना करना। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम शेर के सामने जाकर खड़े हो जाओ, बल्कि इसका मतलब यह है कि पूर्ण सुरक्षा के साथ तुम जंगल में जा रहे हो। यदि जंगल में जाना बहुत आवश्यक है तो तुम शेर के डर से अपने घर पर नहीं बैठ सकते हो। इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में बहुत सारे डर होते हैं जैसे कि परीक्षा का डर, लक्ष्य न पाने का डर, झूठ बोलने का डर, सच का पता लग जाने का डर, अपनों को खो देने का डर, दुर्घटना हो जाने का डर। लेकिन जैसे जैसे समय के साथ इन डरों का सामना किया जाता है, वैसे वैसे ये डर जीवन से दूर होते चले जाते हैं। अगर तुम इनसे बचने का प्रयास करते हो तो यह जीवन भर तुम्हें सताते रहेंगे। यह तभी दूर हो सकते हैं, जब तुम इनका सामना करो। कुछ लोगों को तो दूसरों के सामने खुलकर बात करने में भी डर लगता है। ऐसे लोगों को अनजान लोगों से बात करनी चाहिए। जितना ही वह लोगों से बात करेंगे, उतना ही उनके मन का डर दूर होता जाएगा। मानसिक डर को ताकत में बदलने का तीसरा उपाय है अपने डर को स्वीकार करना। बहुत से लोग अपने जीवन में अपने डर को स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं। अगर आप उनसे पूछेंगे कि उन्हें किस चीज से डर लगता है, तो वह साफ इनकार कर देंगे कि उन्हें किसी चीज से कोई डर नहीं लगता। लेकिन दूसरों की नजरों में ऊंचा उठने के लिए यह झूठ उन्हें बहुत महंगा पड़ता है। अगर वह अपने डर को स्वीकार करना नहीं सीखेंगे, तो वह जीवनभर उस डर से मुक्त नहीं हो पाएंगे। इसलिए समझदारी इसी में है कि अपने डर को स्वीकार कर लीजिए। अगर आपको किसी चीज से डर लगता है तो किसी से शर्माने की या झिझकने की कोई जरूरत नहीं है। हर मनुष्य को, हर इंसान को किसी न किसी चीज से डर लगता ही है और आप पाएंगे कि जैसे ही आप अपने डर को स्वीकार करते हैं, वैसे ही आपका डर खत्म होना शुरू हो जाता है और जितना ही आप अपने डर को छुपाने की कोशिश करेंगे, आपका डर उतना ही मजबूत होता चला जाता है। यह सारे तरीके तुम्हारे मानसिक डर को दूर कर सकते हैं। लेकिन शारीरिक डर को दूर करने के लिए तुम्हें दूसरे तरीके अपनाने होंगे। सबसे पहले यह समझो कि शारीरिक डर कौन सा होता है। मान लो तुम किसी जंगल से गुजर रहे हो और अचानक तुम्हारे सामने शेर आ जाता है। तुमने पहले नहीं सोचा था कि शेर तुम्हारे सामने आ सकता है, लेकिन जब भूत तुम्हारे सामने आता है तो तुम्हारी सारी शारीरिक गतिविधि या शिथिल हो जाती हैं। तुम्हारी सांसें अटक जाती हैं, मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है और तुम्हारा दिल तेजी के साथ धड़कने लगता है। तो इसलिए जब बिन सोचे बातें हमारे साथ घटित होती हैं तो हमारे शरीर उस डर को महसूस कर पाता है और वही शारीरिक डर कहलाता है। ऐसे समय में शारीरिक डर को दूर करने के कुछ उपाय हैं। कुछ तरीके हैं। सबसे पहला उपाय तो यही है कि अपने ऊपर संयम रखें। जब किसी मनुष्य के साथ बिन सोची बात घटित होती है तो सबसे पहले उसका संयम टूट जाता है और संयम टूटने के साथ उसका मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है और इसी वजह से सोचने और समझने की प्रक्रिया भी रुक जाती है क्योंकि हमारा शरीर उसी प्रकार कार्य करेगा। इस प्रकार हमारा मस्तिष्क उसे निर्देश देगा। अगर मस्तिष्क की सोचने समझने की शक्ति खत्म हो गई तो हमारा शरीर भी शिथिल हो जाता है। इसलिए अगर कठिन समय में मनुष्य अपने ऊपर संयम रखता है तो उसका मस्तिष्क सही तरीके से काम करता है और वह सही निर्णय लेकर उस परिस्थिति से तत्काल बाहर आ सकता है। यहां पर दूसरा उपाय समझने का यह है कि जीवन में कुछ भी घटित हो सकता है। जीवन बड़ा चमत्कारिक होता है। वह हमारी सोच के अनुरूप नहीं चलता, बल्कि उसमें कुछ भी हो सकता है और यही जीवन की खूबसूरती होती है। अगर आपको आज ही पता चल जाए कि आने वाले 10 साल तक आप क्या कर पाएंगे तो आपकी जीवन में भी रूचि खत्म हो जाएगी। लेकिन अगर जीवन एक रहस्यमयी किताब की तरह बना रहेगा तो अपने जीवन से कभी नहीं थकेंगे। आपका जीवन आपको आश्चर्य चकित करता रहेगा। इसलिए यह समझो कि जीवन में कुछ भी घटित हो सकता है, तुम्हारी सोच से परे भी घटित हो सकता है। इसलिए कुछ अनुमान मत लगा लेना। किसी सोच को लेकर संन्यासी ने अपनी बात खुद। करते हुए कहा कि इन तरीकों से तुम अपने मानसिक और शारीरिक डर को दूर कर सकते हो और आनंद से भरा हुआ जीवन जी सकते हो। तो दोस्तों आपको कहानी। मतलब आपको कैसी लगी कमेंट करके बताना और कमेंट में नमो बुद्धा जरूर लिखना। मिलते हैं अगली कहानी में। 

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